मंगलवार, 15 जुलाई 2008

एकालाप (४) : मैं नीलकंठ नहीं हुई

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एकालाप ४ : मैं नीलकंठ नहीं हुई
-ऋषभ देव शर्मा






वे आए और रेखाएं खींच गए
मेरे चारों ओर
मेरे ऊपर नीचे
सब तरफ़ रेखाएँ ही रेखाएँ
.


मेरे हँसने पर पाबंदी
मेरे बोलने पर पाबंदी
मेरे सोचने पर पाबंदी
.
हँसी, तो सभा में उघाड़ी गई
बोली, तो धरती में समाना पडा
सोचा, तो आत्मदाह का दंड भोगा
.
फिर भी मैंने कहा
मैं हँसूँगी
मैं बोलूँगी
मैं सोचूँगी
.
मैंने पैरों में घुंघरू बाँध लिए
और अपने साँवरे के लिए
नाचने लगी
.
नाचती रही
नाचती रही
.
उन्होंने मुझे पागलखाने में डाल दिया
कुलनाशी और कुलटा कहा
साँपों की पिटारी में धर दिया
.

मेरे अंग-अंग से साँप लिपटते रहे
दिन दिन भर
रात-रात भर
मेरे पोर-पोर को डंसते रहे
चूर-चूर हो गयीं
नाग फाँस में मेरी हड्डियां
.

फिर भी
मैं नाचती रही
नाचती रही
नाचती रही
अपने साँवरे के लिए
.
उन्होंने विष का प्याला भेजा
मेरा नाच रुक जाए
मेरी साँस रुक जाए
.

मैंने पी लिया
विष का प्याला
सचमुच पी लिया
कंठ में नहीं रोक कर रखा
.

मैं नीलकंठ नहीं हुई
सारी नीली हो गई
साँवरी हो गयी
साँवरे का रंग जो था
.

मैं हँसती रही
मैं नाचती रही
.

मैं रोती रही
आँसुओं से सींचकर
प्रेम की बेल बोती रही.
.

जाने कब से हँस रही हूँ
जाने कब से नाच रही हूँ
जाने कब से रो रही हूँ
अकेली
.

कभी तो आनंद फल लगेगा
कभी तो अमृत फल उगेगा
.


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